Tuesday, June 26, 2012

गैंग्स ऑफ शंघाई का नॉस्टेल्जिया है वासेपुर

पत्रकारिता एक मिशन है या रोज़गार? आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है या राजनीतिक परिवार और गैंग्स ऑफ वासेपुर कुछ नया गढने का एक प्रयोग है या एक मुम्बईया फिल्म, ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब भाई लोग अपनी सुविधा और मौके के हिसाब से कुछ भी दे डालते हैं। जहाँ तक चला ले जाएँ वहाँ तक मिशन, जब पकड़ में आने लगें तो बोलेंगे भाई हम भी तो एक धंधा ही कर रहे हैं, इतनी उम्मीद ही कैसे लगाते हैं..

फिल्म का प्रचार इसके "रियलिस्टिक" खुरदरेपन के लिए किया जाता रहा लेकिन अगर जब किसी ने यह पूछा कि भाई इसमें कोयला मजदूरों का संघर्ष सिरे से गायब है और यूनियनों का सिर्फ वसूली वाला चेहरा ही सामने आता है तो जवाब मिला भाई अब ये कोई डाक्यूमेंट्री थोड़े ही है। "शंघाई" के बारे में कुछ ऐसा ही पूछे जाने पर दिबाकर बनर्जी ने कहा कि तब तो ये प्रोपगंडा फिल्म हो जाती। और मुंबई में हाल के हिंसक विस्थापनों के लिए जिम्मेदार देशमुख खानदान को खास धन्यवाद जब इस फिल्म के टाइटल्स पर आता है तब?

फिल्म को समझने का शायद एक तरीका शायद यह भी होता है कि परदे के उल्टी तरफ देखा जाय. जब हम बच्चे थे तो कौतूहल से उस जगह देखते थे जहां से रंग-बिरंगी रौशनियाँ निकलती हैं. लेकिन उस तरफ नहीं, फिल्म को देख रहे दर्शकों की नज़रों में.

दिल्ली के उस एक मॉल-स्थित सिनेप्लेक्स के अंदर जहां मैं वासेपुर देख रहा था, वासेपुर भाग-तीन के किरदार अच्छी तादाद में थे. वासेपुर के तीसरे भाग में, जो शायद अनुराग कश्यप ना बनाएँ, रामाधीर सिंह के पोतों से लेकर सुल्ताना डाकू की चौथी पीढ़ी तक सब उपस्थित थे. ज़्यादातर बिहार के 'जातिवाद' 'जंगल-राज' इत्यादि से परेशान होकर दिल्ली आये. कारपोरेट से लेकर कॉल-सेंटरों तक में नौकरियाँ करते हैं, मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी करते हैं, मीडिया में हैं, कई तो ब्लॉग भी चलाते हैं. अपने उन सभी प्यारे लोगों को पीछे छोडकर - अपने आदरणीय पिताजी, गजब के वो चाचा और उनके दोस्त जो अब भी छुट्टियों में मजे करवाते हैं जब हम दिल्ली से उनके लिए विदेशी ब्रांडेड दारू बैग में छुपाकर पहुंचते हैं. इस फिल्म को ऐसी कई दर्जन सोफिस्टिकेटेड आँखें देख रही थीं और वर्तमान की उधेडबुन के बीच उन तीन घंटों में अपनी नास्टेल्जिया को जी रही थीं. सारे नहीं, लेकिन कई दर्जन लोग तो उस हॉल के अंदर बाकायदा हर फ्यूडल संवाद, मनोज वाजपेयी की हर लुच्ची नज़र और कलात्मक ambiguity के उस understated टेक्सचर पर सीटियाँ बजा रहे थे और फब्तियां कस रहे थे. इंटरवल के बाद तो मॉल वालों ने बकायदा बाउंसरों को बुलाया इनको काबू करने के लिए.

क्या अनुराग ने यह फिल्म ऐसे दर्शकों को ध्यान में रख कर बनाई है? सीटियाँ बजाते तो लोगों को 'बैंडिट क्वीन' के दौरान भी देखा गया था. बासु भट्टाचार्य की आख़िरी फिल्म 'आस्था' के पोस्टर भी लोकल वितरकों ने बाकायदा रेखा की हॉट फ़िल्म के बतौर बनवाए थे. लेकिन फेसबुक पर वासेपुर के ऑफिशियल फैन पेज पर न सिर्फ पचानबे प्रतिशत कमेंट्स ऐसे ही चटाखेदार हैं, बल्कि खुद इस पेज के मॉडरेटर ने भी वासेपुर-तीन के ग्लोबल बाशिंदों को सहलाने वाली ऐसे ही स्टेटस और तस्वीरें साझा की हैं। फेसबुक पर एक जगह अपील की गई है - क्या आप मानते हैं एक अनुराग कश्यप एक 'राइजिंग स्टार' हैं? तो फिर वोट कीजिये, नहीं तो सरदार खान आपकी कह के ले लेगा ! यहाँ दर्शकों से पूछा गया है कि बताइये वासेपुर का सबसे अच्छा डायलाग कौन सा है और पढ़िए वासेपुर-तीन के लोगों ने क्या क्या लिखा है। इस बातचीत में शामिल फ्यूडल नॉस्टेल्जिया से ग्रस्त ज़्यादातर "ऊंची" जात के लड़के ही शामिल हैं, भले ही कोई इस फिल्म के स्त्री-किरदारों को मजबूत बताता फिरे।

यह बिलकुल वाजिब बात है कि एक ही टेक्स्ट के कई पाठ हो सकते हैं और लोग आखिर अपने हिसाब से ही हर सीन को डीकोड करेंगे. लेकिन अनुराग, दिबाकर और विशाल भारद्वाज जैसे लोगों की फिल्में सचेत रूप से इन सभी पाठों को, इन सभी दर्शकों को ध्यान में रखती हैं. देव-डी में अच्छे गाने हैं, वेब-कैम के ऐसे रेफेरेंस जिनपर खूब सीटियाँ बजीं वह भी हैं और जिनको कुछ विमर्श ढूँढना ही है उनके लिए पुरानी और नई पारो के बीच तुलनात्मक अध्ययन का भी पूरा स्कोप है. यह सबकुछ सचेत है. कश्यप जैसे लोगों ने न सिर्फ हमारी फिल्मों का नया क्राफ्ट गढा है बल्कि इसके लिए नया बाज़ार, नया अर्थशास्त्र और प्रमोशन के नए तरीके भी ढूंढें हैं. लेकिन इन सबका मूल्यांकन करते समय सन 90 के बाद के उस सामाजिक बैकग्राउंड को भी ध्यान में रखना होगा आखिर जिसके चलते ही यह सब संभव हुआ है.


कहने को तो हाल की इन सारी फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा को ज़मीनी टच दिया है, शायद पहली दफा "डीटेल्स" और टेक्सचर पर इतना काम हुआ है. लेकिन गौर से देखें तो सच को, उस खुरदरे टेक्सचर को एक निर्लिप्त artifact बना देना क्या एक ट्रेजेडी नहीं है? इश्किया की देहाती विद्या बालन में वह बिलकुल शहराती 'विट' और sensuousness हो, शंघाई में मुंबई की बस्तियों के संघर्षों को लेकर 'यह सब चलता रहता है, बहुत क्रूर है यहाँ सब' टाइप अवसरवादी सिनिकल निर्लिप्तता हो या वासेपुर के मजेदार माफिया हों, इन सबमें सच के कुछ हिस्सों को लकड़ी की हू-ब-हू मूर्ति में तब्दील कर आपके सामने ऐसे रख दिया गया है जिसे आप प्रशंसा और हसरतों से देखते रहे. रियलिटी का यह सिनेमाई रिप्रोडक्शन इतना जबरदस्त है कि वासेपुर के लोग भी उतना ही विरोध करते हैं जिससे दुनिया को पता चल जाय कि वासेपुर असल में कोई जगह है, और फिर फिल्म देखने बैठ जाते हैं. मैं भी दूसरा हिस्सा देखने के लिए टिकट कटाऊंगा ही.

ज़मीन की खुशबू और खुरदरापन लिए ये फिल्में इतनी ही ज़मीनी हैं कि वासेपुर और इश्क्रिया के ज़माने में मेरे कसबे के हॉलों में लोग या तो मिथुन/अमिताभ की पुरानी फिल्में देखते हैं या फिर भोजपुरी की. ये नई ज़मीनी फिल्में ज़मीन के लोगों पर बनी हो सकती हैं, उनके लिए नहीं बनी हैं. क्योंकि मल्टीप्लेक्स से लेकर संगीत के अधिकार तक इनका अर्थशास्त्र पूरा हो जाता है. कम-से-कम उन पुरानी फिल्मों के प्रोड्यूसरों को मेरे गाँव के दर्शकों के बारे में सोचना पडता था. अब ये दिक्कत खत्म हो गई है. तो सिनेमा की दुनिया में दो धड़े हैं - एक जो अपने दर्शकों को उन्ही की दुनिया की कहानियां सुनाता है, और दूसरा उस दुनिया की जो अब वो पीछे छोड़ आए हैं. और नास्टेल्जिया की ताकत इतनी ज़्यादा होती है कि कम-से-कम अभी के लिए तो यश चोपडा ने भी इसके आगे घुटने टेक दिए हैं और इश्कज़ादे बनाने में लग गए हैं. एक समूचा टीवी चैनल बस सरोकारों के बाज़ार पर ही टिका है. सब दरअसल मध्यवर्ग के इस संक्रमण काल की उपज है, एक और कुछ समय बाद हम इन छिछले इमोशंस को भी झिडक देंगे. मसाला फिल्मों की ताकत चूकी नहीं है. यह सिर्फ संयोग है लेकिन कितना सटीक - कि वासेपुर और दबंग बनाने वाले सगे भाई हैं और उन्होंने बाज़ार के दो हिस्सों को आपस में बाँट लिया है.

यह सब लिखने का मतलब मध्यवर्ग के दर्शकों को गरियाना नहीं है. ना ही उस संभावना को जिसमें मुख्यधारा की सीमाओं के बीच अलग तरह का कुछ कहने की गुंजाइश बने. लेकिन जिरह यह है कि आप उस भाषा का, उस संभावना का उपयोग कर किसलिए रहे हैं.

हिन्दी के वर्चुअल स्पेस का, जे.एन.यू के मेस का आप अपने प्रचार के लिए उपयोग तो करें लेकिन जब सवाल पूछ लिए जाएँ तो आप अपना एरोगेंस दिखायें, यह कम-से-कम आपके लिए तो अच्छे आसार नहीं ही हैं। अनिल जी की इस बात पर ध्यान दें - "शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं कस के लेगीइसमें कोई दो राय नहीं है।"



कुमार सुन्दरम


Saturday, August 20, 2011

Ugly Display of Casteism in Anna's Anti-corruption Movement (See pictures)

Isn’t this frenzy to have a supra-constitutional Lokpal, elected by seven enlightened elites, unaccountable to anybody and capable of intercepting our telephone/internet/awarding life imprisonment for corruption a reflection of our middle classes’ rightwing common sense, where many would have loved having military rule after independence to discipline the nation. Many still fondly remember emergency as trains ran on time.

Our constitution, parliament and democracy have become too noisy for the upper-caste elite who have to listen to uncomfortable voices there which were absent for centuries. No glorification of parliamentary democracy here, but Lokpal-cracy is definitely a step backwards.

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अन्ना एक अफवाह है.

हमारी कमजोरी यह है कि हम उसमें अपने सपनों की क्रान्ति प्रोजेक्ट कर रहे हैं, भले ही अन्ना खुद वैसा ना बोल रहे हों ! अन्ना की ताकत यह है कि उनसे किसी इंटरव्यू में ग्रीनहंट, रिजर्वेशन, अर्थनीति, विदेशनीति पर सीधे सवाल नहीं पूछे गए, जबकि राजनेताओं को यह आज़ादी नहीं होती. अन्ना की मजबूती यह है कि उनका कोई इतिहास नहीं है इसलिए वे जब चाहें खुद को गांधी से जोड़ लें जब चाहें शिवाजी से.

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अन्ना के आयोजकों की उनको सख्त ताकीद होगी कि वे कम से कम और धीमें से धीमे बोलें. ताकि हम अन्ना में वही सुनें जो हम सुनना चाहते हैं, और अन्ना हमें अपने ही दिल की आवाज़ लगें.
अन्ना को हिदायत होगी कि वे लोकपाल के अलावा दूसरे मुद्दों पर तो बिलकुल नहीं बोलें.

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तसवीरें और उनके कैप्शन दिलीप मंडल जी से साभार

सब मुफ्त, रहना खाना। आजादी की लड़ाई चल रही है..
जन सैलाब है यह। मीडिया ने कहा है। तीन चौथाई मैदान में कीचड़ और पानी है।

ढंढिए,किधर है राष्ट्रीय आंदोलन।

फ्रूटी बाटने की तैयारी। माले मुफ्त।


तस्वीर बोलती है। हम चुप रहेंगे।

मनु सुना था कि मर गया है। अण्णा के मजमे में जिंदा है।

पोज दे रहे हैं श्रीमान। आंखों में संविधान को मिटाने का ख्वाब है।


रोशनी कम है। लेकिन लगभग 50 टीवी कैमरे लाइन से लगे हैं। नजर भीड़ पर है। पीछे खाली मैदान में क्या रखा है

यह ऊंचा उठा हुआ कैमरा एक बार पीछे घूम जाए, तो पोल खुल जाएगी इस राष्ट्रीय जन सैलाब की।

दूसरी मांग में संजय गांधी की आत्मा है और तीसरे में मनु महाराज की। पैकेज डील है।

आज बस इतना ही। देखते रहिए। आगे भी कैमरा बोलेगा।

अन्ना और लोकपाल बिल पर एक बहस


कुछ पूर्व-ढाबाबाजों (वैसे ढाबा से जुड़ा कोई कभी भी 'पूर्व' नहीं होता ) ने फेसबुक पर अन्ना और उनके लोकपाल के मायनों पर बहस की जो बाकी जनता के लिए भी दिलचस्प हो सकती है, सो बहस फेसबुक से उठाकर यहाँ चस्पा की जा रही है . यह बहस मूलरूप से फेसबुक में साथी हिमांशु पंड्या के पन्ने पर यहाँ पढी जा सकती है https://www.facebook.com/himanshukeliye/posts/274850292529509

Himanshu Pandya
From Anna's Lokpal Bill - "Lokpal shall be deemed to be designated authority under Section 5 of the Indian Telegraph Act empowered to approve interception and monitoring of messages of data or voice transmitted through telephones, internet or any other medium as covered under the Indian Telegraph Act read with Information and Technology Act 2000 and as per rules and regulations made under the Indian Telegraph Act 1885." Kumar Sundaram से साभार .
12 hours ago · Like · · Remove tagRao Pradeep Singh likes this.

Himanshu Pandya ‎Ashutosh Kumar Ashok Kumar Pandey Kamayani Bali Mahabal Rizvi Amir Abbas Syed Prakash K Ray Anand Pradhan Avinash Das कृपया इस पर तवज्जो दें.
12 hours ago · Like · 1 person

Kumar Sundaram गजब रायता फैला है भाई चारो ओर...मैं दावे के साथ कहता हूँ इस एपिसोड को गणेश जी को दूध पिलाने की तरह ही याद किया जाएगा ...ज़्यादातर लोग कहेंगे मैं नहीं गया था, या मैं तो सिर्फ देखने गया था, या मैं तो ये देखने गई थी कि इतना बड़ा ड्रामा आखिर चल कैसे रहा है..!!
12 hours ago · Like · 3 people

Himanshu Pandya ‎'ऐतिहासिक भूलों' का भी अपना इतिहास है .
12 hours ago · Unlike · 3 people

Prakash K Ray I reject some of the provisions of Anna's draft such as one mentioned above. But that does not mean I would go with the Govt's bill.
11 hours ago · Like

Kumar Sundaram ‎'मुझे कोक और पेप्सी में कोक पसंद है' इससे ज्यादा आज़ादी घातक होती है !
11 hours ago · Like · 2 people

Himanshu Pandya @‎Prakash K Ray कौन कमबख्त सरकारी बिल का समर्थक है , प्रकाश ? अन्ना परिघटना का विरोध कर रहे आपके दोस्तों ने कभी कहा कि वे एक सशक्त लोकपाल की जरूरत नहीं मानते ? अन्ना की आलोचना को सरकार का समर्थन तो न माने प्लीज .
विडम्बना यह है कि ऊपर वाला कमेन्ट लिखकर आप भी अन्ना विरोधियों की श्रेणी में आ गए हैं क्योंकि अब तो अनशन इसी बात का है - मेरा वाला लोकपाल .
10 hours ago · Like · 2 people

Ashutosh Kumar ‎@Himanshu Pandya ,हिमांशु , जनलोकपाल ड्राफ्ट टेलीग्राफ एक्ट या आई टी एक्ट में किसी बदलाव की मांग नहीं कर रहा है . पहले से मौजूद इन कानूनों में निहित उन शक्तियों की मांग कर रहा है , जो किसी भी समान्तर जांच अधिकारी को सुलभ हैं.
9 hours ago · Like · 1 person

Kumar Sundaram ‎Ashutosh दा, UID पर भी सरकार का यही जवाब है की कुछ नया नहीं हो रहा अलग-अलग प्रावधानों को इकट्ठा कर दिया जा रहा है. इतना संघनित 'लोकतंत्र' किसे, क्यूँ चाहिए?
9 hours ago · Like · 1 person

Ashutosh Kumar हम हर तरह के दमनकारी कानूनों / प्रावधानों का विरोध करते हैं. सामने के प्रसंग में जनलोकपाल ड्राफ्ट सिर्फ यह चाहता है की उस के पास किसी भी सक्षम जांच अधिकारी को मिलने वाले अधिकार होने चाहिए. ध्यान देने की बात यह है की भ्रष्टाचार की जांच के लिए जरूरी होने पर , जरूरत के मुताबिक़ ,डाटा इंटरसेप्शन को संस्तुत करने का अधिकार मांगा जा रहा है , जो मौजूदा कानूनों के अनुरूप है. क्या हम यह मांग कर सकते हैं की किसी भी स्थिति में डाटा इंटरसेप्शन के इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए ? मुझे नहीं लगता की जनलोकपाल लोकतंत्र को 'संघनित' कर रहा है .यह पहरेदारों को चोरों के मुकम्मल कब्ज़े से छुडाने की कोशिश ज़्यादा है.
9 hours ago · Like

Ashok Kumar Pandey ‎@Ashutosh bhai भ्रष्टाचार के खिलाफ चिल्लाने वाले अपने एन जी ओ को लोकपाल के दायरे में लाने की मांग सुनकर काहें सठिया जाते हैं? दुनिया के करप्शन की जिन्हें चिंता है अपने धंधे पर आंच आते ही बौखला क्यूँ रहे हैं? इतने ईमानदार हैं तो अपने ही लोकपाल से डर क्यूँ रहे हैं?
8 hours ago · Like

Ashutosh Kumar जनलोकपाल सरकारी भ्रष्टाचार की निगहबानी करने के लिए चाहिए .प्राइवेट भ्रष्टाचार पर नज़र रखने के लिए सरकार काफी है .
5 hours ago · Like · 2 people

Kumar Sundaram और सरकार पर अंकुश रखने के लिए एक अलोकतांत्रिक अथोरिटी ज़रूरी है? दो रिटायर्ड जज, दो नोबेल पुरस्कृत सज्जन समेत सात अभिजनो द्वारा चयनित एक लोकपाल को हम प्रधानमंत्री के ऊपर बिठा रहे हैं?

मुझे याद है जब भाजपा सरकार की हनक अपने चरम पर थी तो हमारे कई कामरेडों को अचानक सूझने लगा था की वामपंथ ने 'भारत में धर्म को नहीं समझा'. और तब ग्रंथों को कोई खींच-खांच कर भी प्रगतिशील सिद्ध कर दे और भाजपा को राम-विरोधी, तो ताली बजने लगती थी.

वैसे ही, जनता से जुड़ने के कई मौके गंवाने की 'ऐतिहासिक भूलों' के मलाल में कहीं हम जहां कहीं भी 'जनता' और मीडिया दिख जाय, वहाँ बिना दूल्हे के बाराती की तरह अपना झंडा लेकर पहुँचने पर मजबूर तो नहीं हो गए हैं?
2 hours ago · Like · 2 people

Ashok Kumar Pandey ‎@Ashutosh Kumar जिस सरकार को इतना भ्रष्ट माना जा रहा है कि उस पर निगरानी के लिए एन जी ओज एक बिल तय करके दे रहे हैं, जिस न्यायपालिका को इतना भ्रष्ट माना जा रहा है कि उसकी निगरानी के लिए एन जी ओज एक बिल तैयार करके दे रहे हैं...उन्हीं पर एन जी ओज की निगरानी के लिए इतना विश्वास?
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Himanshu Pandya नोबल पुरस्कार मतलब सर विडिया .
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Ashok Kumar Pandey वैसे ही, जनता से जुड़ने के कई मौके गंवाने की 'ऐतिहासिक भूलों' के मलाल में कहीं हम जहां कहीं भी 'जनता' और मीडिया दिख जाय, वहाँ बिना दूल्हे के बाराती की तरह अपना झंडा लेकर पहुँचने पर मजबूर तो नहीं हो गए हैं? Kumar Sundaram गजब!!!
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Himanshu Pandya मैं हमेशा यह मानता हूं कि ब्रौड अलायंस होना चाहिए लेकिन अपने स्वाभाविक साथियों की पहचान तो कीजिये . जो कोर्पोरेट केभ्रश्ताचार / इरोम के संघर्ष / एं.जी.ओ. के घपले / प्रतिनिधित्त्व के सवाल / लोकपाल के सर्व्सत्तावान निरंकुश होने के खतरे की बात करे वह तो विरोधी और यूथ फॉर इक्वैलिटी का प्रवक्ता / विकास की नवउदारवादी धारा का समर्थक / एं.जी.ओ का गठजोड़ दोस्त !
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Ashok Kumar Pandey नोबेल नहीं मैग्सेसे....
about an hour ago · Unlike · 1 person

Himanshu Pandya नहीं , नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं , और उनका भारतीय नागरिक होना भी जरूरी नहीं . स्मृति से लिख रहा हूं पर लगभग निश्चित हूं.
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Kumar Sundaram ‎5. A selection committee consisting of the following shall be set up:
a. The Chairpersons of both Houses of Parliament
b. Two senior most judges of Supreme Court
c. Two senior most Chief Justices of High Courts.
d. All Nobel Laureates of Indian Origine. Chairperson of National Human Rights Commissionf. Last two Magsaysay Award winners of Indian origing. Comptroller and Auditor General of Indiah. Chief Election Commissioneri. Bharat Ratna Award winners
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Himanshu Pandya हुए न सर विडिया !
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Kumar Sundaram ‎2. Following persons shall not be eligible to become Chairman or Member in Lokpal:
(a) Any person who was ever chargesheeted for any offence under IPC or PC Act or was ever
penalized under CCS Conduct Rules.
(b) Any person who is less than 40 years in age. (???????)
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Himanshu Pandya लता मंगेशकर भी !
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Kumar Sundaram ‎3. At least four members of Lokpal shall have legal background.
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Kumar Sundaram ‎4. The members and Chairperson should have unimpeachable integrity and should have
demonstrated their resolve and efforts to fight against corruption in the past. (ANNA HIMSELF and his team?????)
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Himanshu Pandya बेशक अन्ना अन्ना और अन्ना .
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Ashok Kumar Pandey अग्निवेश का क्या होगा? बेचारे....
51 minutes ago · Like


Kumar Sundaram मैं अन्ना के लोकपाल बिल के खिलाफ हूँ. और सरकारी बिल के भी. Period.
यह पूरी क्रान्ति से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करने की जिद नहीं है. अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो ऊपर से लोकपाल थोपने की बजाय नीचे से कुछ हो - मसलन आर.टी. आई. का दायरा बढ़ाया जाय और इसके कार्यकर्ताओं/शिकायतकर्ताओं को सुरक्षा मिले. संसद/लोकतंत्र से बाहर एक गिरोह के तरह काम करना सभी दलों की संस्कृति में है - कांग्रेस के राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् है, भाजपा की तो राजधानी ही नागपुर में है. सीपीएम तो राजधानी के छोडिये हर पुलिस थाने और दफ्तर का विकल्प स्थानीय पार्टी ऑफिस में ढूँढती रही. और अब 'गैर-सरकारी, गैर-राजनीतिक' अभिजन भी लोकपाल के जरिये अपने लिए ऐसा ही ठिकाना ढूंढ रहे हैं.38 minutes ago · Like · 2 people


Kumar Sundaram
‎'गैर-सरकारी, गैर-राजनीतिक' अभिजन = essentially Neoliberal elite. Look at that moron called Chetan Bhagat.
Any political project can't be successful without taking masses along with it....and this elite has chosen a 'crusade against corruption' for it.
34 minutes ago · Like ·

Friday, August 13, 2010

गरीबों का अनाज - पहले सड़ाइए , फिर बचाने के नाम पर कंपनियों को दे दीजिये

इधर कुछ हफ़्तों से मीडिया में लगातार देश में अनाज सड़ जाने की खबरें रही हैं।और यह सिर्फ इसी साल नहीं हो रहा, पिछले एक दशक में लाख टन से ज़्यादा अनाज सड़ गया | भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में सड़ रहा यह अनाज करोड़ों लोगों की भू शांत कर सकता था | इस मुद्दे पर हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कहा कि अनाज सड़ने के लिए छोड़ने की बजाय रीबों को मुफ्त बाँट दिया जाय |


अनाज का सड़ना भारत जैसे देश में सर्वथा दुर्भाग्यपूर्ण है और इस पर जल्दी ही करवाई करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की जरूरत है | साथ ही, मीडिया में मचे कोलाहल के बीच इस मुद्दे पर सतावर्ग की मंशा को ध्यान से समझने की जरूरत है |

पहली बात यह कि हाल के दिनों में मीडिया में इस मुद्दे पर जो आक्रोश दिख रहा है, उस की वजह अनाज की इस बर्बादी पर उपजे गुस्से को कुछ ऐसे नीतिगत बदलावों की तरफ मोड़ना है, जिनसे स्थिति और बदतर ही होगी | आज के हिन्दुस्तान टाइम्स की इस मुद्दे पर टेक यह है कि इस बर्बादी को बचाने के लिए कार्पोरेट उद्यमियों के लिए अनाज-भंडारण में निवेश के रास्ते खोले जाने चाहिए। यह इस ज्वलंत मुद्दे को एक गलत निष्कर्ष की तरफ मोड़ने की साजिश है | जैसा कि समाजवादी जन परिषद् के सुनील अपने लेख 'गेहूं आयात घोटाले का सच ' में कहते हैं - "बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महामुनाफों के लिए जरूरी है कि सरकार तथा भारतीय खाद्य निगम रास्ते से हट जाएँ, और सरकार यही कर रही है|" और इस बार इस निर्मम लूट के लिए कार्पोरेट समर्थित मीडिया आम लोगों की जरूरतों के नाम पर सरकार के लिए औचित्य जुटा रही है |

यह कुछ ऐसा ही है जैसे पिछले साल सत्यम इन्फोटेक में काम करने वाले आम लोगों के नाम पर सरकार ने उतने बड़े घोटाले के उजागर होने पर भी उक्त कंपनी को संभालने में जनता की पूंजी लगाईं | या फिर जैसे कि कुछ सालों से ग्लोबल वार्मिंग और अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन से बचने के नाम पर परमाणु बिजली को भारी प्रोत्साहन दिया जा रहा है, बिना यह देखे कि इससे निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा कार्बन की तुलना में कहीं अधिक और कई हज़ार वर्षों तक विषैला बना रहने वाला है | मतलब यह कि हमारी सरकार और मीडिया के सामने जब ऐसी स्थिति होती है कि वह इन मुद्दों से मुंह न मोड़ सकें तो ऐसे ही शॉर्ट-कट ढूँढती है, जिससे पूंजी के खेल पर कोई मूलभूत असर न पड़े और उलटे वह और मजबूत हो | ऐसे उपायों की तलाश हमें और घने अँधेरे की तरफ ही ले जायेगी |

सुनील जी द्वारा लिखित किताब "भूख, गरीबी और महंगाई: कहाँ से आई" से ऐसे दिशाहीन उपायों की सीमाओं और उनमें निहित खतरों का पता चलता है | भुखमरी की समस्या का एक कारण भंडारण की समुचित व्यवस्था न होना जरूर है, लेकिन देश के खाद्य संकट की जडें इससे कहीं ज़्यादा गहरी हैं | आम तौर पर हम मान कर चलते हैं कि खाद्य समस्या का हल अनाज का उत्पादन बढाने, उसके उचित रखरखाव और फिर न्यायपूर्ण आवंटन में है | लेकिन जैसा कि सुनील स्पष्ट करते हैं - "ऐसा प्रतीत होता है कि यह संकट तात्कालिक है और तात्कालिक कारणों के दूर होने पर यह दूर भी हो जाएगा | लेकिन इस संकट के पीछे वे ज़्यादा बुनियादी एवं दीर्घकालीन नीतियाँ हैं, जो दुनिया के कृषि विकास, कृषि व्यापार, खाद्य-अर्थव्यवस्था और अमीरों के अंतहीन उपभोग वाली आधुनिक जीवनशैली में पिछले काफी समय से विकसित हो रही हैं |" सुनील ने इन कारणों का गहराई में अध्ययन किया है और और खाद्य संकट को 'सभ्यता का संकट' कहा है | इस बात को और संक्षेप में समझने के लिए मैं इस किताब से कुछ बिंदुवार तथ्य नीचे दे रहा हूँ -

  • हरित क्रान्ति को देश में अनाज की आपूर्ति बढाने का श्रेय दिया जाता है, जबकि असल में यह अभियान हमारी जरूरतों के हिसाब से नहीं था | यह क्रान्ति बहुत एकांगी थी और चावल-गेहूं या कपास-गन्ने-सोयाबीन तक सीमित रह गई | विदेश से आई तकनीक वहाँ की जरूरतों के मुताबिक़ थी, इसने हमारी कृषि प्राथमिकताओं को कुंठित किया और कृषि विविधता को नुकसान पहुंचाया जिससे देश में दलहन और अन्य फसलों भारी की कमी बनी हुई है |
  • 1991 के दौर से ही सरकार ने खाद्य-स्वावलंबन के लक्ष्य को त्याग दिया है | प्रोफ़ेसर अभिजीत सेन के नेतृत्व में ' दीर्घकालीन अनाज नीति' हेतु गठित समिति के सुझाव पर सरकार भंडारण से वैसे ही पीछे हट रही है और विविधिकरण के नाम पर अनाज की बजाय फल, फूल और अन्य निर्यात योग्य फसलों पर ध्यान दिया जा रहा है |
  • अनाज के भंडारण और व्यापार में देसी-विदेशी कंपनियों को खुली छूट मिलने से और उन्हें खाद्य प्रसंस्करण केकुटीर उद्योग में भी दाखिला मिलने से खाने-पीने की वस्तुएं बेतहाशा महंगी हुई है |
  • अमीर देशों और बड़ी कंपनियों ने गरीबों के खाने की चीजों को जैव इंधन (इथेनोल) के निर्माण में झोंक दिया है, जिससे खाद्यसंकट गंभीर हुआ है, यह विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन का भी मानना है |
सुनील जी की किताब में खाद्य उपनिवेशवाद, कृषि अनुदान के दोहरे मानदंडों और आधुनिक 'वैज्ञानिक' पशुपालन विधि में होने वाले खाद्य-सामग्री की अंधाधुंध खपत इत्यादि विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है और खाद्य समस्या को सिर्फ आवंटन और भंडारण की समस्या के परे जाकर आधुनिक खाद्यनीतियों पर पुनर्विचार करने पर बल दिया गया है |

सुनील जी को हमारे समय के बड़े सवालों की पहचान है | हमें चाहिए कि हम उनकी बात ध्यान से सुनें और खाद्य समस्या जैसी मूल समस्या पर मीडिया और सरकार की लफ्फाजियों के परे जाकर सोचना शुरू करें | सुनील जी की यह किताब मुझे अफलातून जी से मिली, जब उनसे पिछले महीने दिल्ली में भेंट हुई | उनके ब्लॉग पर हम सुनील जी के कई अन्य लेख पढ़ सकते हैं।

Tuesday, March 9, 2010

क्या सचमुच लालू-मुलायम-मायावती महिला आरक्षण के विरोधी हैं और भाजपा-काँग्रेस सबसे बड़े महिला हितैषी?

महिला आरक्षण बिल के सन्दर्भ में कठफोड़वा और मोहल्ला ब्लॉग पर हमारे पुराने साथी अजय ने महत्वपूर्ण बहस शुरु की है । उन्होंने यह रेखांकित किया है कि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग कोटा देने की माँग को मीडिया में महिलाओं को मिल रहे आरक्षण में अड़ँगा डालने जैसी चीज़ के रूप में पेश किया जा रहा है । यह एक जरूरी सवाल है जिसपर खुलकर बात होनी चहिए ।

अजय की पोस्ट पर मैने जो टिप्पणी की उसे यहाँ रख रहा हूँ -

काँग्रेस और भाजपा जहां इस बहस को डाउनप्ले कर रहें हैं और यूथ फॉर इक्वालिटी जैसे 'अराजनीतिक' संगठन इस पर चुप्पी साधे हैं, वहीँ वामपंथी सिद्धांतकार सारी महिलाएं दलित हैं जैसे मुहावरे गढ़ने में शायद सबसे आगे हैं.

निवेदिता मेनन ने लगभग एक साल पहले इस पर बहस चलाई थी, जिसके जवाब में कविता कृष्णन ने यह कहा कि संसद में आरक्षण इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ 'मेरिट' जैसी कोई चीज नहीं चलती बल्कि अंततः सामाजिक गोलबंदी से अवसरों का फैसला होता है. और चूंकि ओबीसी राजनीतिक तौर पर एक गोलबंद है, जैसा कि संसद में आरक्षण के बगैर भी 27% से ज़्यादा ओबीसी सांसद पहुँचने से ज़ाहिर होता है, अगर बिना अलग कोटे के भी आरक्षण दिया जाय, तो भी ओबीसी महिलाएं अपने अनुपात में स्वाभाविक तौर पर आयेंगी.

कुछ ऐसा ही अफलातून जी ने भी लिखा हैं ।

लेकिन मुझे अभी भी यह तर्क साफ़ समझ में नहीं आया. अगर जनसंख्या की वजह से ओबीसी सीधे ही अच्छी तादाद में संसद में आ गए बिना आरक्षण, तो औरतों को भी उनकी आधी आबादी की ताकत के भरोसे ही क्यों न छोड़ दिया जाए. और अगर हम यह कहते हैं कि औरतों को नहीं छोड़ सकते क्योंकि औरतें राजनीतिक रूप से गोलबंद कौम नहीं हैं, तो फिर ओबीसी औरतों को भी क्यों छोड़ा जाय.

दिलीप मंडल जी का क्रीमी लेयर वाला सवाल भी वाजिब और ज़रूरी है.

सवर्णों के इस देश में अब महिला आरक्षण बिल की साजिश

महिला आरक्षण पर अपने पुराने साथी अजय की पोस्ट. मोहल्ला से साभार.

♦ अजय यादव

बात अगर यूं कहें कि भारत, एक ऐसा देश, जो अपने निर्माण के हजारों साल पहले से ही धर्म, जाति, क्षेत्र, समुदाय और विभिन्न संस्कृतियों के बीच उलझा हुआ देश था (है), आज वही देश कई तरह के संक्रमण को झेलते हुए न सिर्फ दुनिया की महाशक्ति बनने को बेकरार है, बल्कि संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने को प्रतिबद्ध भी। भारत के लिए यह एक ऐतिहासिक समय ही है कि महिला दिवस के मौके पर दक्षिणपंथी-वामपंथी-कांग्रेसी और कुछ क्षेत्रीय दल भी राजनीति में महिलाओं को एक तिहाई हिस्सेदारी देने के लिए एकमत हो गये हैं। ‘आरक्षण विरोधियों’ या यूं कहिए कि पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करने वाली नाममात्र की कुछ क्षेत्रीय पार्टियों को छोड़ दें तो आज पूरा देश इस बात पर सहमत है कि महिलाएं, जो किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति, क्षेत्र, समुदाय, धर्म या संस्कृति की हों, ‘दलित’ ही हैं, इसलिए उन्हें आरक्षण देना देश और समाज के हित में है – जाहिर है यह सब बढ़कर बहुतों को अच्छा लग रहा होगा, और इनमें भी सबसे ज्यादा वे लोग होंगे जो महिला आरक्षण के मामले में भरत (भारत) के साथ हैं।

अब थोड़ा विषयांतर, दीपक मिश्रा (जिक्र के लिए माफी), मेरा एक ऐसा दोस्त, जो पाकिस्तान और मुसलमानों के मामले में तो दक्षिणपंथी और बाकी मामलों में खुद को प्रगतिशील कहलाना पसंद करता है। दीपक एक न्यूज चैनल में काम करता है। पिछले साल के एक दिन, मैं, दीपक और एक सहकर्मी (नाम याद नहीं) चाय पी रहे थे। वे दोनों इस बात से निराश थे कि किस तरह से सेटिंग-गेटिंग और जातिवाद ने मीडिया में ‘गधों’ का जमावड़ा लगा दिया। वे इस बात से भी दुखी थे कि किस तरह सालों की मेहनत के बाद भी चैनल ने उनकी तनख्वाह एक बार भी नहीं बढ़ायी और ‘गधों-चंपुओं’ की सैलरी कई बार बढ़ा दी गयी। वे मेरी भी सैलरी नहीं बढ़ने पर दुख जता रहे थे। बातों बातों में सहकर्मी ने मेरी तरफ रुख किया, ‘मैंने आजतक जितने भी ‘यादवों’ को देखा, वे या तो बहुत ब्रिलीएंट थे या बहुत ‘गधे’… बीच का एक भी यादव नहीं मिला।’ मैंने उनकी बातों पर सहमति-असहमति जताये बिना ही तुरंत पूछा कि मीडिया में आरक्षण होना चाहिए कि नहीं? पहले तो दोनों अचकचाए, लेकिन बिना समय गंवाये जवाब दिया – ‘नहीं’। मुझे हंसी आ गयी – ‘क्यों, मीडिया में गधे आ जाएंगे?’ ये वही मीडिया है जिसमें ‘तेजस्वी सवर्णों’ का लगभग एकाधिकार है। और इन्हीं तेजस्वी जातियों के कब्जे में पूरा देश भी।

सभी को पता है कि मौजूदा महिला आरक्षण लागू हो जाने पर संसद में किस तबके और कौन से और धर्म की महिलाएं ज्यादा चुन कर आएंगी और वे महिला हितों की लड़ाई को कितना आगे ले जाएंगी। मनुवादियों का वर्गीय चरित्र महिलाओं को अपनी पार्टियों का माउथपीस बना देगा और वे भी सोच के मामले में उतनी ही अभिशप्त होंगी, जितनी कि ये पार्टियां हैं। यहां पर मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि इस आरक्षण व्यवस्था में दलित-पिछड़ी-आदिवासी-अल्पसंख्यक महिलाओं की हिस्सेदारी तय होने पर संसद में कोई सुर्खाब के पर लग जाएंगे। बात बस एक बड़े तबके की महिलाओं के वाजिब अधिकारों का गला घोंटने की है और ऐसा भारतीय ‘लोकतंत्र’ में खुलेआम हो रहा है।

महिला दिवस पर महिलाओं को आरक्षण का तोहफा देने के प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता से पूरा देश खुश है। सवर्ण खुश हैं, कांग्रेस खुश है, वर्गीय चेतना को व्याख्यायित करते वामपंथी खुश हैं, कनविंस कर ली गयी छोटी पार्टियां खुश हैं, मीडिया खुश है, महिला संगठन खुश हैं, दलितों-गरीबों के घर घूम-घूमकर खाना खा रहे युवराज खुश हैं… दुखी है तो बस देश का बहुसंख्यक जन, जिसे एकबार फिर खुलेआम ठगा जा रहा है और वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पहले शूद्रों के नाम पर भारत की महान संस्कृति ने हजारों साल तक उन्हें समाज से बहिष्‍कृत किये रखा और अब सत्ता से उनकी मां-बहनों को भी बेदखल करने का पूरा इंतजाम कर लिया गया है। और इन्हीं दबे-कुचले-शोषित लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता और उनकी पार्टियां आज इस मसले पर रिरियाती नजर रही हैं, ये वही पार्टियां हैं, जो महिलाओं के अधिकारों के मामले में मनुवादियों से रत्तीभर भी पीछे नहीं हैं। उनकी इस बात पर कि वे महिला आरक्षण के विरोधी नहीं है, बशर्ते इसमें पिछड़ी-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक महिलाओं की भी जगह सुनिश्चत की जाए, को अनसुना कर दिया जा रहा है और उल्टे उन्हें ही महिला आरक्षण का विरोधी कहकर मजाक उड़ाया जा रहा है।

कितनी अजीब बात है कि इस अन्याय में वामपंथी भी बराबर के साझीदार है और उन्हें इस बार भी किसी ऐतिहासिक गलती का एहसास तक नहीं है। संसदीय वामपंथ भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा सवर्ण चेहरा है, जो भूख, गरीबी, शिक्षा, भेदभाव, शोषण और वर्गविहीन समाज के नाम पर वंचितो-शोषितों को बरगलाने का काम करता है और इस ‘लोकतंत्र’ को चिरंजीवी बनाने का भी।

यहां पर मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान के अध्यापक आनंद प्रधान (यहां उनपर लगे ब्लॉगीय जातिवाद को दूर रखें) की वह बात याद आ रही है, जो कि उन्होंने मंडल विरोधियों को संबोधित करते हुए कही थी – ‘आरक्षण लागू करके वीपी सिंह ने एक तरह से भारतीय लोकतंत्र को बचाने का ही काम किया है।’ जरा सोचिए, अगर मंडल कमीशन नहीं लागू होता तो आज देश के क्या हालात होते (शायद, चिदंबरम का ग्रीन हंट अब कंट्री हंट बन गया होता)? और आज, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक महिलाओं का हक मारकर किस लोकतंत्र को रचा जा रहा है। मंडल के विरोध में जल मरने वाले सवर्ण (और सवर्ण वामपंथ भी) आज दीवाली मना रहा है, लेकिन दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के घरों में मातम है, दिल उदास है और लाचार भी…

Ajay Yadav(अजय यादव। गाजीपुर के रहने वाले अजय पिछले कुछ सालों से दिल्‍ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। खासकर इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में। वामपंथी रुझान वाले अजय वाम छात्र संगठन आइसा से जुड़े रहे हैं। उनसे ajayadava@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Thursday, March 4, 2010

What Would have Happened if India was a Muslim Majority Country?

I was asked this question by a fellow commentator recently on another blog - what would have happened if India was a Muslim majority country?

I think that's a very interesting question.

Consider some of the possibilities -

First, the British couldn’t have played a divisive politics based on multiple religions and they couldn’t have partitioned the subcontinent.

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