फिल्म का प्रचार इसके "रियलिस्टिक" खुरदरेपन के लिए किया जाता रहा लेकिन अगर जब किसी ने यह पूछा कि भाई इसमें कोयला मजदूरों का संघर्ष सिरे से गायब है और यूनियनों का सिर्फ वसूली वाला चेहरा ही सामने आता है तो जवाब मिला भाई अब ये कोई डाक्यूमेंट्री थोड़े ही है। "शंघाई" के बारे में कुछ ऐसा ही पूछे जाने पर दिबाकर बनर्जी ने कहा कि तब तो ये प्रोपगंडा फिल्म हो जाती। और मुंबई में हाल के हिंसक विस्थापनों के लिए जिम्मेदार देशमुख खानदान को खास धन्यवाद जब इस फिल्म के टाइटल्स पर आता है तब?
फिल्म को समझने का शायद एक तरीका शायद यह भी होता है कि परदे के उल्टी तरफ देखा जाय. जब हम बच्चे थे तो कौतूहल से उस जगह देखते थे जहां से रंग-बिरंगी रौशनियाँ निकलती हैं. लेकिन उस तरफ नहीं, फिल्म को देख रहे दर्शकों की नज़रों में.
दिल्ली के उस एक मॉल-स्थित सिनेप्लेक्स के अंदर जहां मैं वासेपुर देख रहा था, वासेपुर भाग-तीन के किरदार अच्छी तादाद में थे. वासेपुर के तीसरे भाग में, जो शायद अनुराग कश्यप ना बनाएँ, रामाधीर सिंह के पोतों से लेकर सुल्ताना डाकू की चौथी पीढ़ी तक सब उपस्थित थे. ज़्यादातर बिहार के 'जातिवाद' 'जंगल-राज' इत्यादि से परेशान होकर दिल्ली आये. कारपोरेट से लेकर कॉल-सेंटरों तक में नौकरियाँ करते हैं, मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी करते हैं, मीडिया में हैं, कई तो ब्लॉग भी चलाते हैं. अपने उन सभी प्यारे लोगों को पीछे छोडकर - अपने आदरणीय पिताजी, गजब के वो चाचा और उनके दोस्त जो अब भी छुट्टियों में मजे करवाते हैं जब हम दिल्ली से उनके लिए विदेशी ब्रांडेड दारू बैग में छुपाकर पहुंचते हैं. इस फिल्म को ऐसी कई दर्जन सोफिस्टिकेटेड आँखें देख रही थीं और वर्तमान की उधेडबुन के बीच उन तीन घंटों में अपनी नास्टेल्जिया को जी रही थीं. सारे नहीं, लेकिन कई दर्जन लोग तो उस हॉल के अंदर बाकायदा हर फ्यूडल संवाद, मनोज वाजपेयी की हर लुच्ची नज़र और कलात्मक ambiguity के उस understated टेक्सचर पर सीटियाँ बजा रहे थे और फब्तियां कस रहे थे. इंटरवल के बाद तो मॉल वालों ने बकायदा बाउंसरों को बुलाया इनको काबू करने के लिए.
यह बिलकुल वाजिब बात है कि एक ही टेक्स्ट के कई पाठ हो सकते हैं और लोग आखिर अपने हिसाब से ही हर सीन को डीकोड करेंगे. लेकिन अनुराग, दिबाकर और विशाल भारद्वाज जैसे लोगों की फिल्में सचेत रूप से इन सभी पाठों को, इन सभी दर्शकों को ध्यान में रखती हैं. देव-डी में अच्छे गाने हैं, वेब-कैम के ऐसे रेफेरेंस जिनपर खूब सीटियाँ बजीं वह भी हैं और जिनको कुछ विमर्श ढूँढना ही है उनके लिए पुरानी और नई पारो के बीच तुलनात्मक अध्ययन का भी पूरा स्कोप है. यह सबकुछ सचेत है. कश्यप जैसे लोगों ने न सिर्फ हमारी फिल्मों का नया क्राफ्ट गढा है बल्कि इसके लिए नया बाज़ार, नया अर्थशास्त्र और प्रमोशन के नए तरीके भी ढूंढें हैं. लेकिन इन सबका मूल्यांकन करते समय सन 90 के बाद के उस सामाजिक बैकग्राउंड को भी ध्यान में रखना होगा आखिर जिसके चलते ही यह सब संभव हुआ है.
यह सब लिखने का मतलब मध्यवर्ग के दर्शकों को गरियाना नहीं है. ना ही उस संभावना को जिसमें मुख्यधारा की सीमाओं के बीच अलग तरह का कुछ कहने की गुंजाइश बने. लेकिन जिरह यह है कि आप उस भाषा का, उस संभावना का उपयोग कर किसलिए रहे हैं.
हिन्दी के वर्चुअल स्पेस का, जे.एन.यू के मेस का आप अपने प्रचार के लिए उपयोग तो करें लेकिन जब सवाल पूछ लिए जाएँ तो आप अपना एरोगेंस दिखायें, यह कम-से-कम आपके लिए तो अच्छे आसार नहीं ही हैं। अनिल जी की इस बात पर ध्यान दें - "शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं ‘कस के लेगी’ इसमें कोई दो राय नहीं है।"
कुमार सुन्दरम