Thursday, August 23, 2007

ब्रजेश जी की फाडू़ कविता.......

कभी-कभी बउराओ यार !
कभी-कभी पगलाओ यार !

चादर तान सुते मुद्दों को ढेला मार जगाओ यार.....
कभी-कभी बउराओ यार ! कभी-कभी पगलाओ यार !

अनगढ़-अटपट-अगड़म-बगड़म-गड़बड़-सड़बड़ गप्प-गुबार
झिझक
जनेऊ तोड़ खडे़ हो, हन-हन घनो कि कसै लुहार

शोर बढ़ा है, चौंध बढ़ी है, हाड़ा दल-सी खबरें
गूँगे-बहरे
सरजी, किसका-किसका पियाज कतरें

प्रिय-परिकल्पित-अभीष्ट-वांछित, कुछ दिन सब परहेजो
वर्णी संज्ञाओं को लुइहाओ लानत भेजो

फ़िफ़्थ फ़्लोर की खिड़की से कुछ ताको और खजुआओ
तेज करो थूथुन की बत्ती
, कभी-कभी कुछ गाओ

कागज का यह कुआँ, घड़े ! शंकाएँ फिर भी रह जाएँगी
यही किताबें ! यही किताबें !! एकदिन तुमको खा जाएँगी

3 comments:

Unknown said...

ब्रजेश जी की यह फाड़ू कविता मनुष्य जीवन मे व्याप्त विडम्बनाओ का सच्चा बयान है! फाड़ दी यार!!

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

wah! achchhi kavita hai.

issbaar said...

इस मोड़ पर शहर, उस मोड़ पर गांव/न इधर छांव, न उधर छांव/लूट-खसोट, चोरी-दांव /कांव-कांव, कांव-कांव/रोए दैया, माई-बाउ/कांव-कांव, कांव-कांव/बहना-भैया, बोले नाए/काये कमाए, काये खाए/जिंदगी में है लाइव तमाशा/ना गुड़ की भेली, नाए बतासा/चुप्पा मार, मर लो यार/काहे मचाए, हाहाकार/उम्र में छोटे, पकड़े पांव/गरीब-गुरबा, है स्वाभाव/चुल्ही-मुड़ी अगोरे हम...! बाबू-राजा मारे दम/चुल्ही-मुड़ी अगोरे हम...! बाबू-राजा मारे दम/चुल्ही-मुड़ी अगोरे हम...! बाबू-राजा मारे दम/चुल्ही-मुड़ी अगोरे हम...! बाबू-राजा मारे दम

-राजीव रंजन प्रसाद, शोध छात्र, बीएचयू, वाराणसी