Monday, January 7, 2008

एक कविता यह भी

जिस दिन बेनज़ीर भुट्टो मारी गईं,
उसके अगले दिन मरीं मेरी दादी।
जिस दिन नेपाल गणतंत्र बना,
उसके एक दिन पहले ।

पहले तो ये सब चीजें घटती रहती थीं
और दादी अपनी जगह बनी रहती थीं
फिर धीरे-धीरे दादी पीछे छूटती गईं।
इधर कुछ सालों से जबसे मैं दिल्ली आया वो मुझसे एकदम बिछड़ गईं थीं ।

अपने सारे रिश्तों-धागों को सहेजती रहीं वे अन्त तक,
और सारी तारीखें भी इन्हीं की मार्फ़त दर्ज़ करती रहीं
गाँधी बाबा के उठान से लेकर 65-71 की लड़ाईयों, और हाल की घटनाओं तक
सारे दिन उनके लिए किसी की शादी के साल थे या किसी के जनम के।
या फिर बड़ी अकालों वाला कोई साल या परिवार में किसी बडे़ मुकदमे का साल।

बतातीं,
शादी की डोली में आज़ादी के नारे सुनती आईं थीं।
और फिर ऐसे ही सबकुछ देखती-सुनती रहीं -
कभी दरवाजे की ओट से, कभी बड़ों-बच्चों से,
कभी धोबिनों-दर्जियों के किस्सों से।

अभी जब ये हुआ तब याद आया -
कि उनका एक मायका भी था,
वरना मैं तो उनको सिर्फ़ दादी माने बैठा था।

1 comment:

Jitendra kumar said...

बढ़िया प्रयास हैं, पर न जाने क्यूँ मुझे लगता हैं कि इस कविता कि मूल भावना बिद्रोही जी कि कविता मेरी दादी और नूर मियां का सुरमा से उत्प्रेरित हैं..