Wednesday, February 13, 2008

थोड़ा सा बादल चखना है !!

टाटा वाली लखटकिया कार की चौंध में कुछ यारों को सूझ नहीं रहा है। या फ़िर मुँह चुरा रहे हैं। एन.डी.टी.वी ने रतन टाटा को भारतरत्न की सिफारिश परोस दी तो इसके पत्रकार रवीश ने अपने ब्लॉग 'कस्बा' में नैनो के विरोध को बड़ी कार वालों की खुन्नस करार दिया. यहाँ तक कहा कि अमीर अपने किए प्रदूषण की चिंता नहीं करते और हम आम लोगों की कार से होनेवाले जाम और कचरे का हिसाब कर रहे हैं।

सिर्फ़ कचरे नहीं कई और सवालों पर हम ऐसी ही खुशफहमियों के शिकार हैं। मैंने रवीश के पोस्ट पर जो चिप्पी साटी उसे यहाँ वैसे ही रख रहा हूँ -


हम नैनो के तीर से बाहर हैं ये मुझे नहीं दिखता. 850 करोड़ की सीधी सब्सिडी, नैनो को घर में बाँधने का महीनावार खर्च और फ़िर नैनो के लिये ज़रुरी सड़क वगैरह के इन्फ़्रास्ट्रक्चर का बोझ हमारे हिस्से ज़रा भी न आयेगा? नैनो से घायल इस बार का ये आम आदमी कहीं शाइनिंग इंडिया के किसी कस्बे में ही तो नहीं रहता?

नैनो-विरोध को अमीरों की जलन कहकर झिड़क देने की कस्बाई गुत्थी भी मुझसे नहीं सुलझती. आर्थिक असुरक्षा और लोन के बल टिका हमारा हाई पिच उपभोग हमारे लगातार मध्यवर्ग बने रहने की कार्पोरेटी साजिश की गारन्टी है. दूसरी तरफ़ पर्यावरण के प्रति हमारी कम्पिटीटीव गैर-जिम्मेवारी अमीरों के मुकाबले हमारे मजबूत होने का रास्ता नहीं. पर्यावरण भी इतना नेचुरल नहीं है. उसके नुकसान की चिन्ता हमें ही ज़्यादा करनी होगी क्योंकि ठन्ड-गर्म-बरसात भी हम पर ही ज़्यादा गुजरेगी. कर्पोरेट हित हमेशा शॉर्ट-टर्म होते है.

वर्ग-संघर्ष को एक तबके द्वारा दूसरे को धकिया कर उसी कार, एटम बम और चाँद पर कॉलोनी के रेस को जीतने के सरलीकृत बोल्शेविक फ़ार्मूले की बजाय एक समूचे वैकल्पिक जीवन की लड़ाई के रूप में ही समझने की ज़रूरत है. और दुनिया एक तबके द्वारा दूसरे के शोषण की सच्चाई से कभी की आगे निकल गयी. शुरु में ( और अब भी ) शोषण पर पलती-बढती पूँजी का जिन्न अब इतना बड़ा हो गया है कि military industrial complex और climate change कोई दूर के खतरे नहीं. और इससे बढ़्कर एक सभ्यता के रूप में हमारी विविधता - कई किस्म के खान-पान, पहनावों, तौर-तरीकों का सफ़ाया हो गया बाज़ार के मानकीकृत शोकेस को सजाने में. हम अब कहीं और बैठे प्रोलेतेरियत के लिये नहीं, अपने लिये और सबके लिये लड़ रहे हैं - उन अमीरों के लिये भी जिनको कोई भी दो-चार आसन-व्यायाम-वास्तु-फ़ेंग्शुई जैसे शिगूफ़े से चूतिया बना जाता है और जिनके बच्चे ज़रा सी बात पर अपनी क्लास के साथियों पर गोली दाग देते हैं.

1 comment:

Mihir Pandya said...

मैं पोस्ट से लगभग सहमत हूँ. जो आपने लिखा, "वर्ग-संघर्ष को एक तबके द्वारा दूसरे को धकिया कर उसी कार, एटम बम और चाँद पर कॉलोनी के रेस को जीतने के सरलीकृत बोल्शेविक फ़ार्मूले की बजाय एक समूचे वैकल्पिक जीवन की लड़ाई के रूप में ही समझने की ज़रूरत है. और दुनिया एक तबके द्वारा दूसरे के शोषण की सच्चाई से कभी की आगे निकल गयी." यह लिखना भी एक बड़ी बात है हम लोगों में. लेकिन इस बात को मानने पर भी कुछ चीज़ें कैसे समझी जाएँ ये समस्या मेरे सामने अब भी बाकी है. जैसे...

1. नैनो को तो हम 'पर्यावरण' वाले तर्क से पीट सकते हैं लेकिन फ़िर 'मेट्रो' का क्या करेंगे? मेरा मतलब यह नहीं कि वहाँ भी बड़ा खतरा है लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि 'मेट्रो' दिल्ली में वैसे ही मध्य वर्ग की उम्मीद बनकर उभरी है जिस तरह नैनो (और नैनो अभी ख्वाब है, मेट्रो हकीक़त). और जो पर्यावरण संबंधी तर्क नैनो का विरोध करता है उसमें भी मेट्रो एक समाधान है. तो हम अपने पर्यावरण संबंधी तर्क से रवीश कुमार कि 'नैनो' वाली पोस्ट से तो बखूबी जूझ लिए लेकिन जब गुरुशरण दास अपने लेख में 'मेट्रो' की तारीफों के पुल बांधते हैं तब उसपर हमारा रुख क्या हो?

2. हाल ही में अलगोर की बनाई फ़िल्म The inconvenient truth देखी है. वहाँ तो एक साम्राज्यवादी इस climate change को अपनी रणनीति बना रहा है. इस्तेमाल कर रहा है इसका मनचाहा. मुझे वो फ़िल्म देखकर लगा कि लड़ाई बहुत ही जटिल होती जा रही है. बहुत सावधानी की ज़रूरत है. मुझे अबतक ठीक से पता नहीं कि उसपर कैसे रिएक्ट करूं. चालाकी पकड़ में तो आ रही है लेकिन मामला जटिल है यह तो मानना पड़ेगा.

JNU आए बहुत दिन हुए. आऊंगा तो मिलना होगा ऐसी उम्मीद है. महानदी भी आना होगा. और आप दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं इसमें कोई शक नहीं. उसके सामने बाकी सब बकवास है!

जो अपने ब्लॉग पर चल रही बात में जोड़ा है उसे यहाँ भी लिख रहा हूँ. मुझे आपके ब्लॉग से बहस के लिए हमेशा अच्छी दिमागी खुराक मिलती है. और यह ब्लॉग की बड़ी तारीफ गिनी जानी चाहिए. अगर गंगा ढाबे पर चलने वाली बहसें इस ब्लॉग की मार्फ़त हम तक पहुँचती रहें तो यह तो 'मन मांगी मुराद' पूरी हो जायेगी! इसे छोडियेगा मत...