Tuesday, June 26, 2012

गैंग्स ऑफ शंघाई का नॉस्टेल्जिया है वासेपुर

पत्रकारिता एक मिशन है या रोज़गार? आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है या राजनीतिक परिवार और गैंग्स ऑफ वासेपुर कुछ नया गढने का एक प्रयोग है या एक मुम्बईया फिल्म, ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब भाई लोग अपनी सुविधा और मौके के हिसाब से कुछ भी दे डालते हैं। जहाँ तक चला ले जाएँ वहाँ तक मिशन, जब पकड़ में आने लगें तो बोलेंगे भाई हम भी तो एक धंधा ही कर रहे हैं, इतनी उम्मीद ही कैसे लगाते हैं..

फिल्म का प्रचार इसके "रियलिस्टिक" खुरदरेपन के लिए किया जाता रहा लेकिन अगर जब किसी ने यह पूछा कि भाई इसमें कोयला मजदूरों का संघर्ष सिरे से गायब है और यूनियनों का सिर्फ वसूली वाला चेहरा ही सामने आता है तो जवाब मिला भाई अब ये कोई डाक्यूमेंट्री थोड़े ही है। "शंघाई" के बारे में कुछ ऐसा ही पूछे जाने पर दिबाकर बनर्जी ने कहा कि तब तो ये प्रोपगंडा फिल्म हो जाती। और मुंबई में हाल के हिंसक विस्थापनों के लिए जिम्मेदार देशमुख खानदान को खास धन्यवाद जब इस फिल्म के टाइटल्स पर आता है तब?

फिल्म को समझने का शायद एक तरीका शायद यह भी होता है कि परदे के उल्टी तरफ देखा जाय. जब हम बच्चे थे तो कौतूहल से उस जगह देखते थे जहां से रंग-बिरंगी रौशनियाँ निकलती हैं. लेकिन उस तरफ नहीं, फिल्म को देख रहे दर्शकों की नज़रों में.

दिल्ली के उस एक मॉल-स्थित सिनेप्लेक्स के अंदर जहां मैं वासेपुर देख रहा था, वासेपुर भाग-तीन के किरदार अच्छी तादाद में थे. वासेपुर के तीसरे भाग में, जो शायद अनुराग कश्यप ना बनाएँ, रामाधीर सिंह के पोतों से लेकर सुल्ताना डाकू की चौथी पीढ़ी तक सब उपस्थित थे. ज़्यादातर बिहार के 'जातिवाद' 'जंगल-राज' इत्यादि से परेशान होकर दिल्ली आये. कारपोरेट से लेकर कॉल-सेंटरों तक में नौकरियाँ करते हैं, मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी करते हैं, मीडिया में हैं, कई तो ब्लॉग भी चलाते हैं. अपने उन सभी प्यारे लोगों को पीछे छोडकर - अपने आदरणीय पिताजी, गजब के वो चाचा और उनके दोस्त जो अब भी छुट्टियों में मजे करवाते हैं जब हम दिल्ली से उनके लिए विदेशी ब्रांडेड दारू बैग में छुपाकर पहुंचते हैं. इस फिल्म को ऐसी कई दर्जन सोफिस्टिकेटेड आँखें देख रही थीं और वर्तमान की उधेडबुन के बीच उन तीन घंटों में अपनी नास्टेल्जिया को जी रही थीं. सारे नहीं, लेकिन कई दर्जन लोग तो उस हॉल के अंदर बाकायदा हर फ्यूडल संवाद, मनोज वाजपेयी की हर लुच्ची नज़र और कलात्मक ambiguity के उस understated टेक्सचर पर सीटियाँ बजा रहे थे और फब्तियां कस रहे थे. इंटरवल के बाद तो मॉल वालों ने बकायदा बाउंसरों को बुलाया इनको काबू करने के लिए.

क्या अनुराग ने यह फिल्म ऐसे दर्शकों को ध्यान में रख कर बनाई है? सीटियाँ बजाते तो लोगों को 'बैंडिट क्वीन' के दौरान भी देखा गया था. बासु भट्टाचार्य की आख़िरी फिल्म 'आस्था' के पोस्टर भी लोकल वितरकों ने बाकायदा रेखा की हॉट फ़िल्म के बतौर बनवाए थे. लेकिन फेसबुक पर वासेपुर के ऑफिशियल फैन पेज पर न सिर्फ पचानबे प्रतिशत कमेंट्स ऐसे ही चटाखेदार हैं, बल्कि खुद इस पेज के मॉडरेटर ने भी वासेपुर-तीन के ग्लोबल बाशिंदों को सहलाने वाली ऐसे ही स्टेटस और तस्वीरें साझा की हैं। फेसबुक पर एक जगह अपील की गई है - क्या आप मानते हैं एक अनुराग कश्यप एक 'राइजिंग स्टार' हैं? तो फिर वोट कीजिये, नहीं तो सरदार खान आपकी कह के ले लेगा ! यहाँ दर्शकों से पूछा गया है कि बताइये वासेपुर का सबसे अच्छा डायलाग कौन सा है और पढ़िए वासेपुर-तीन के लोगों ने क्या क्या लिखा है। इस बातचीत में शामिल फ्यूडल नॉस्टेल्जिया से ग्रस्त ज़्यादातर "ऊंची" जात के लड़के ही शामिल हैं, भले ही कोई इस फिल्म के स्त्री-किरदारों को मजबूत बताता फिरे।

यह बिलकुल वाजिब बात है कि एक ही टेक्स्ट के कई पाठ हो सकते हैं और लोग आखिर अपने हिसाब से ही हर सीन को डीकोड करेंगे. लेकिन अनुराग, दिबाकर और विशाल भारद्वाज जैसे लोगों की फिल्में सचेत रूप से इन सभी पाठों को, इन सभी दर्शकों को ध्यान में रखती हैं. देव-डी में अच्छे गाने हैं, वेब-कैम के ऐसे रेफेरेंस जिनपर खूब सीटियाँ बजीं वह भी हैं और जिनको कुछ विमर्श ढूँढना ही है उनके लिए पुरानी और नई पारो के बीच तुलनात्मक अध्ययन का भी पूरा स्कोप है. यह सबकुछ सचेत है. कश्यप जैसे लोगों ने न सिर्फ हमारी फिल्मों का नया क्राफ्ट गढा है बल्कि इसके लिए नया बाज़ार, नया अर्थशास्त्र और प्रमोशन के नए तरीके भी ढूंढें हैं. लेकिन इन सबका मूल्यांकन करते समय सन 90 के बाद के उस सामाजिक बैकग्राउंड को भी ध्यान में रखना होगा आखिर जिसके चलते ही यह सब संभव हुआ है.


कहने को तो हाल की इन सारी फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा को ज़मीनी टच दिया है, शायद पहली दफा "डीटेल्स" और टेक्सचर पर इतना काम हुआ है. लेकिन गौर से देखें तो सच को, उस खुरदरे टेक्सचर को एक निर्लिप्त artifact बना देना क्या एक ट्रेजेडी नहीं है? इश्किया की देहाती विद्या बालन में वह बिलकुल शहराती 'विट' और sensuousness हो, शंघाई में मुंबई की बस्तियों के संघर्षों को लेकर 'यह सब चलता रहता है, बहुत क्रूर है यहाँ सब' टाइप अवसरवादी सिनिकल निर्लिप्तता हो या वासेपुर के मजेदार माफिया हों, इन सबमें सच के कुछ हिस्सों को लकड़ी की हू-ब-हू मूर्ति में तब्दील कर आपके सामने ऐसे रख दिया गया है जिसे आप प्रशंसा और हसरतों से देखते रहे. रियलिटी का यह सिनेमाई रिप्रोडक्शन इतना जबरदस्त है कि वासेपुर के लोग भी उतना ही विरोध करते हैं जिससे दुनिया को पता चल जाय कि वासेपुर असल में कोई जगह है, और फिर फिल्म देखने बैठ जाते हैं. मैं भी दूसरा हिस्सा देखने के लिए टिकट कटाऊंगा ही.

ज़मीन की खुशबू और खुरदरापन लिए ये फिल्में इतनी ही ज़मीनी हैं कि वासेपुर और इश्क्रिया के ज़माने में मेरे कसबे के हॉलों में लोग या तो मिथुन/अमिताभ की पुरानी फिल्में देखते हैं या फिर भोजपुरी की. ये नई ज़मीनी फिल्में ज़मीन के लोगों पर बनी हो सकती हैं, उनके लिए नहीं बनी हैं. क्योंकि मल्टीप्लेक्स से लेकर संगीत के अधिकार तक इनका अर्थशास्त्र पूरा हो जाता है. कम-से-कम उन पुरानी फिल्मों के प्रोड्यूसरों को मेरे गाँव के दर्शकों के बारे में सोचना पडता था. अब ये दिक्कत खत्म हो गई है. तो सिनेमा की दुनिया में दो धड़े हैं - एक जो अपने दर्शकों को उन्ही की दुनिया की कहानियां सुनाता है, और दूसरा उस दुनिया की जो अब वो पीछे छोड़ आए हैं. और नास्टेल्जिया की ताकत इतनी ज़्यादा होती है कि कम-से-कम अभी के लिए तो यश चोपडा ने भी इसके आगे घुटने टेक दिए हैं और इश्कज़ादे बनाने में लग गए हैं. एक समूचा टीवी चैनल बस सरोकारों के बाज़ार पर ही टिका है. सब दरअसल मध्यवर्ग के इस संक्रमण काल की उपज है, एक और कुछ समय बाद हम इन छिछले इमोशंस को भी झिडक देंगे. मसाला फिल्मों की ताकत चूकी नहीं है. यह सिर्फ संयोग है लेकिन कितना सटीक - कि वासेपुर और दबंग बनाने वाले सगे भाई हैं और उन्होंने बाज़ार के दो हिस्सों को आपस में बाँट लिया है.

यह सब लिखने का मतलब मध्यवर्ग के दर्शकों को गरियाना नहीं है. ना ही उस संभावना को जिसमें मुख्यधारा की सीमाओं के बीच अलग तरह का कुछ कहने की गुंजाइश बने. लेकिन जिरह यह है कि आप उस भाषा का, उस संभावना का उपयोग कर किसलिए रहे हैं.

हिन्दी के वर्चुअल स्पेस का, जे.एन.यू के मेस का आप अपने प्रचार के लिए उपयोग तो करें लेकिन जब सवाल पूछ लिए जाएँ तो आप अपना एरोगेंस दिखायें, यह कम-से-कम आपके लिए तो अच्छे आसार नहीं ही हैं। अनिल जी की इस बात पर ध्यान दें - "शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं कस के लेगीइसमें कोई दो राय नहीं है।"



कुमार सुन्दरम


9 comments:

आशुतोष कुमार said...

नब्बे बाद के 'नया सिनेमा' पर यह सोचती विचारती टीप इस पर अधिक जमीनी ढंग से सोचने की राह खोलती है .

Santosh said...

बहस तलब लेख ! एक नए यथार्थ की ओर इंगित करता हुआ लेख ! बधाई आपको ! इस लेख से सहमती-असहमति के बीच में से मेरा अपना ख्याल ये है कि अनुराग कश्यप ने जैसे भोजपुर के मेले के डांस और हाल की पूर्वी उत्तर प्रदेश की फूहड़ नौटंकी को माल्स में ले जाकर शहरी लोगों के सामंती कस्बाई इमोशन का दोहन करने का नया बाज़ार खोल दिया ! अब गाँव के पुराने समय में होने वाले रंडी के नाच की तरह बाप-बेटे मिलकर बैठेंगे और रुपैया उड़ायेंगे , सीटी बजायेंगे और गाली तो ..खैर अपनी प्रेम की भाषा है ही !

Amrendra Nath Tripathi said...

बहुत सही.

गिरिराज किराडू/Giriraj Kiradoo said...

बहुत अच्छा! इधर के 'नए' सिनेमा और उसके पर्सनल्टी कल्ट के जाल में आये बिना आपने बहुत साफ़ दृष्टि और तर्कों से लिखा है.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लिखा है!

Unknown said...

वाह सुंदरम, बहुत इनसाइटफुल लिखा। आपने पत्रकारिता, कला, सिनेमा की निष्प्राण होती भव्यता को चुटकी में पकड़ लिया है। यह हमारे समय का खास लक्षण है जो जितना ही भव्य और ग्लैमरस है उतना असामाजिक है।

Ashok Kumar pandey said...

इस फिल्म पर पढ़ा अब तक का सबसे अच्छा आलेख. अपने समय की सामाजिक-आर्थिक सच्चाइयों के बगैर कला के किसी भी माध्यम के उत्पाद की वस्तुपरक व्याख्या नहीं की जा सकती.

Shridharam said...

acchi aur tarkik samiksha hai.. main aoni pratikriya vistar se likhunga

NIRANJAN JAIN said...

अच्छा लिखा है!