Friday, August 13, 2010

गरीबों का अनाज - पहले सड़ाइए , फिर बचाने के नाम पर कंपनियों को दे दीजिये

इधर कुछ हफ़्तों से मीडिया में लगातार देश में अनाज सड़ जाने की खबरें रही हैं।और यह सिर्फ इसी साल नहीं हो रहा, पिछले एक दशक में लाख टन से ज़्यादा अनाज सड़ गया | भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में सड़ रहा यह अनाज करोड़ों लोगों की भू शांत कर सकता था | इस मुद्दे पर हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कहा कि अनाज सड़ने के लिए छोड़ने की बजाय रीबों को मुफ्त बाँट दिया जाय |


अनाज का सड़ना भारत जैसे देश में सर्वथा दुर्भाग्यपूर्ण है और इस पर जल्दी ही करवाई करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की जरूरत है | साथ ही, मीडिया में मचे कोलाहल के बीच इस मुद्दे पर सतावर्ग की मंशा को ध्यान से समझने की जरूरत है |

पहली बात यह कि हाल के दिनों में मीडिया में इस मुद्दे पर जो आक्रोश दिख रहा है, उस की वजह अनाज की इस बर्बादी पर उपजे गुस्से को कुछ ऐसे नीतिगत बदलावों की तरफ मोड़ना है, जिनसे स्थिति और बदतर ही होगी | आज के हिन्दुस्तान टाइम्स की इस मुद्दे पर टेक यह है कि इस बर्बादी को बचाने के लिए कार्पोरेट उद्यमियों के लिए अनाज-भंडारण में निवेश के रास्ते खोले जाने चाहिए। यह इस ज्वलंत मुद्दे को एक गलत निष्कर्ष की तरफ मोड़ने की साजिश है | जैसा कि समाजवादी जन परिषद् के सुनील अपने लेख 'गेहूं आयात घोटाले का सच ' में कहते हैं - "बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महामुनाफों के लिए जरूरी है कि सरकार तथा भारतीय खाद्य निगम रास्ते से हट जाएँ, और सरकार यही कर रही है|" और इस बार इस निर्मम लूट के लिए कार्पोरेट समर्थित मीडिया आम लोगों की जरूरतों के नाम पर सरकार के लिए औचित्य जुटा रही है |

यह कुछ ऐसा ही है जैसे पिछले साल सत्यम इन्फोटेक में काम करने वाले आम लोगों के नाम पर सरकार ने उतने बड़े घोटाले के उजागर होने पर भी उक्त कंपनी को संभालने में जनता की पूंजी लगाईं | या फिर जैसे कि कुछ सालों से ग्लोबल वार्मिंग और अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन से बचने के नाम पर परमाणु बिजली को भारी प्रोत्साहन दिया जा रहा है, बिना यह देखे कि इससे निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा कार्बन की तुलना में कहीं अधिक और कई हज़ार वर्षों तक विषैला बना रहने वाला है | मतलब यह कि हमारी सरकार और मीडिया के सामने जब ऐसी स्थिति होती है कि वह इन मुद्दों से मुंह न मोड़ सकें तो ऐसे ही शॉर्ट-कट ढूँढती है, जिससे पूंजी के खेल पर कोई मूलभूत असर न पड़े और उलटे वह और मजबूत हो | ऐसे उपायों की तलाश हमें और घने अँधेरे की तरफ ही ले जायेगी |

सुनील जी द्वारा लिखित किताब "भूख, गरीबी और महंगाई: कहाँ से आई" से ऐसे दिशाहीन उपायों की सीमाओं और उनमें निहित खतरों का पता चलता है | भुखमरी की समस्या का एक कारण भंडारण की समुचित व्यवस्था न होना जरूर है, लेकिन देश के खाद्य संकट की जडें इससे कहीं ज़्यादा गहरी हैं | आम तौर पर हम मान कर चलते हैं कि खाद्य समस्या का हल अनाज का उत्पादन बढाने, उसके उचित रखरखाव और फिर न्यायपूर्ण आवंटन में है | लेकिन जैसा कि सुनील स्पष्ट करते हैं - "ऐसा प्रतीत होता है कि यह संकट तात्कालिक है और तात्कालिक कारणों के दूर होने पर यह दूर भी हो जाएगा | लेकिन इस संकट के पीछे वे ज़्यादा बुनियादी एवं दीर्घकालीन नीतियाँ हैं, जो दुनिया के कृषि विकास, कृषि व्यापार, खाद्य-अर्थव्यवस्था और अमीरों के अंतहीन उपभोग वाली आधुनिक जीवनशैली में पिछले काफी समय से विकसित हो रही हैं |" सुनील ने इन कारणों का गहराई में अध्ययन किया है और और खाद्य संकट को 'सभ्यता का संकट' कहा है | इस बात को और संक्षेप में समझने के लिए मैं इस किताब से कुछ बिंदुवार तथ्य नीचे दे रहा हूँ -

  • हरित क्रान्ति को देश में अनाज की आपूर्ति बढाने का श्रेय दिया जाता है, जबकि असल में यह अभियान हमारी जरूरतों के हिसाब से नहीं था | यह क्रान्ति बहुत एकांगी थी और चावल-गेहूं या कपास-गन्ने-सोयाबीन तक सीमित रह गई | विदेश से आई तकनीक वहाँ की जरूरतों के मुताबिक़ थी, इसने हमारी कृषि प्राथमिकताओं को कुंठित किया और कृषि विविधता को नुकसान पहुंचाया जिससे देश में दलहन और अन्य फसलों भारी की कमी बनी हुई है |
  • 1991 के दौर से ही सरकार ने खाद्य-स्वावलंबन के लक्ष्य को त्याग दिया है | प्रोफ़ेसर अभिजीत सेन के नेतृत्व में ' दीर्घकालीन अनाज नीति' हेतु गठित समिति के सुझाव पर सरकार भंडारण से वैसे ही पीछे हट रही है और विविधिकरण के नाम पर अनाज की बजाय फल, फूल और अन्य निर्यात योग्य फसलों पर ध्यान दिया जा रहा है |
  • अनाज के भंडारण और व्यापार में देसी-विदेशी कंपनियों को खुली छूट मिलने से और उन्हें खाद्य प्रसंस्करण केकुटीर उद्योग में भी दाखिला मिलने से खाने-पीने की वस्तुएं बेतहाशा महंगी हुई है |
  • अमीर देशों और बड़ी कंपनियों ने गरीबों के खाने की चीजों को जैव इंधन (इथेनोल) के निर्माण में झोंक दिया है, जिससे खाद्यसंकट गंभीर हुआ है, यह विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन का भी मानना है |
सुनील जी की किताब में खाद्य उपनिवेशवाद, कृषि अनुदान के दोहरे मानदंडों और आधुनिक 'वैज्ञानिक' पशुपालन विधि में होने वाले खाद्य-सामग्री की अंधाधुंध खपत इत्यादि विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है और खाद्य समस्या को सिर्फ आवंटन और भंडारण की समस्या के परे जाकर आधुनिक खाद्यनीतियों पर पुनर्विचार करने पर बल दिया गया है |

सुनील जी को हमारे समय के बड़े सवालों की पहचान है | हमें चाहिए कि हम उनकी बात ध्यान से सुनें और खाद्य समस्या जैसी मूल समस्या पर मीडिया और सरकार की लफ्फाजियों के परे जाकर सोचना शुरू करें | सुनील जी की यह किताब मुझे अफलातून जी से मिली, जब उनसे पिछले महीने दिल्ली में भेंट हुई | उनके ब्लॉग पर हम सुनील जी के कई अन्य लेख पढ़ सकते हैं।

2 comments:

अफ़लातून said...

’सतलज’ में रह चुके सुनील की पुस्तिका की सुन्दर चर्चा,सुन्दरम-चर्चा-: गंगा-ढ़ाबा में

Archana Verma said...

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http://economictimes.indiatimes.com/articleshow/6467961.cms